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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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कुंवरसाहब– तो अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों को कैसे भोगूंगा? बड़े दिन में मेवे की डालियां कैसे लगाऊंगा? सलामी के लिए खानसामा की खुशामद कैसे करूंगा? उपाधि के लिए नैनीताल के चक्कर कैसे लगाऊंगा? डिनर पार्टी देकर लेडियों के कुत्तों को कैसे गोद में उठाऊंगा? देवताओं को प्रसन्न और संतुष्ट करने के लिए देशहित के कार्यों में असम्मति कैसे दूंगा? यह सब मानव-अधःपतन की अंतिम अवस्थाएं हैं। उन्हें भोग किए बिना मेरी मुक्ति नहीं हो सकती। (पद्मसिंह से) कहिए शर्माजी, आपका प्रस्ताव बोर्ड में कब आएगा? आप आजकल कुछ उत्साहहीन से दिख पड़ते हैं। क्या इस प्रस्ताव की भी वही गति होगी, जो हमारे अन्य सार्वजनिक कार्यों की हुआ करती है?

इधर कुछ दिनों से वास्तव में पद्मसिंह का उत्साह कुछ क्षीण हो गया था। ज्यों-ज्यों उसके पास होने की आशा बढ़ती थी, उनका अविश्वास भी बढ़ता जाता था। विद्यार्थी की परीक्षा जब तक नहीं होती, वह उसी की तैयारी में लगा रहता है, लेकिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के बाद भावी जीवन-संग्राम की चिंता उसे हतोत्साह कर दिया करती है। उसे अनुभव होता है कि जिन साधनों से अब तक मैंने सफलता प्राप्त की है, वह इस नए, विस्तृत, अगम्य क्षेत्र में अनुपयुक्त हैं। वही दशा इस समय शर्माजी की थी। अपना प्रस्ताव उन्हें कुछ व्यर्थ-सा मालूम होता था। व्यर्थ ही नहीं, कभी-कभी उन्हें उससे लाभ के बदले हानि होने का भय होता था। लेकिन वह अपने संदेहात्मक विचारों को प्रकट करने का साहस न कर सकते थे, कुंवर साहब की ओर विश्वासपूर्ण दृष्टि से देखकर बोले, जी नहीं, ऐसा तो नहीं है। हां, आजकल फुर्सत न रहने से वह काम जरा धीमा पड़ गया है।

कुंवर साहब– उसके पास होने में तो अब कोई बाधा नहीं है?

पद्मसिंह ने तेगअली की तरफ देखकर कहा– मुसलमान मेंबरों का ही भरोसा है।

तेगअली ने मार्मिक भाव से कहा– उन पर एतमाद करना रेत पर दीवार बनाना है। आपको मालूम नहीं, वहां क्या चालें चली जा रही हैं। अजब नहीं है कि ऐन वक्त पर धोखा दें।

पद्मसिंह– मुझे तो ऐसी आशा नहीं है।

तेगअली– यह आपकी शराफत है। यहां इस वक्त उर्दू-हिन्दी का झगड़ा गोकशी का मसला, जुदागाना इंतखाब, सूद का मुआबिजा, कानून इन सबों से मजहबी तास्सुब के भड़काने में मदद ली जा रही है।

प्रभाकर राव– सेठ बलभद्रदास न आएंगे क्या, किसी तरह उन्हीं को समझाना चाहिए।

कुंवर साहब– मैंने उन्हें निमंत्रण ही नहीं दिया, क्योंकि मैं जानता था कि वह कदापि न आएंगे। वह मतभेद को वैमनस्य समझते हैं। हमारे प्रायः सभी नेताओं का यही हाल है। यही एक विषय है, जिसमें उनकी सजीवता प्रकट होती है। आपका उनसे जरा भी मतभेद हुआ और वह आपके जानी दुश्मन हो गए, आपसे बोलना तो दूर रहा, आपकी सूरत तक न देखेंगे, बल्कि अवसर पाएंगे, तो अधिकारियों से आपकी शिकायत करेंगे। अपने मित्रों की मंडली में आपके आचार-विचार, रीति-व्यवहार की आलोचना करेंगे। आप ब्राह्मण हैं तो आपको भिक्षुक कहेंगे, क्षत्रिय हैं तो आपको उजड्ड-गंवार कहेंगे। वैश्य हैं, तो आपको बनिए, डंडी-तौल की पदवी मिलेगी और शूद्र हैं तब तो आप बने-बनाए चांडाल हैं ही। आप अगर गाने में प्रेम रखते हैं, तो आप दुराचारी हैं, आप सत्संगी हैं तो आपको तुरंत ‘बछिया के ताऊ’ की उपाधि मिल जाएगी। यहां तक कि आपकी माता और स्त्री पर भी निंदास्पद आक्षेप किए जाएंगे। हमारे यहां मतभेद महापाप है और उसका कोई प्रायश्चित नहीं। अहा! वह देखिए, डॉक्टर श्यामाचरण की मोटर आ गई।

डॉक्टर श्यामाचरण मोटर से उतरे और उपस्थित सज्जनों की ओर देखते हुए बोले - I am sorry. I was late.

कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया औरों ने भी हाथ मिलाया और डॉक्टर साहब एक कुर्सी पर बैठकर बोले– When is the performance going to begin!

कुंवर साहब– डॉक्टर साहब, आप भूलते हैं, यह काले आदमियों का समाज है।

डॉक्टर साहब ने हंसकर कहा– मुआफ कीजिएगा, मुझे याद न रहा कि आपके यहां मलेच्छों की भाषा बोलना मना है।

कुंवर साहब– लेकिन देवताओं के समाज में तो आप कभी ऐसी भूल नहीं करते।

डॉक्टर– तो महाराज, उसका कुछ प्रायश्चित्त करा लीजिए।

कुंवर साहब– इसका प्रायश्चित्त यही है कि आप मित्रों से अपनी मातृभाषा का व्यवहार किया कीजिए।

डॉक्टर– आप राजा लोग है, आपसे यह प्रण निभ सकता है। हमसे इसका पालन क्यों कर हो सकता है? अंग्रेजी तो हमारी Lingua Franca (सार्वदेशिक भाषा) हो रही है।

कुंवर साहब– उसे आप ही लोगों ने तो यह गौरव प्रदान कर रखा है। फारस और काबुल के मूर्ख सिपाहियों और हिंदू व्यापारियों के समागम से उर्दू जैसी भाषा का प्रादुर्भाव हो गया। अगर हमारे देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों के विद्वज्जन परस्पर अपनी ही भाषा में संभाषण करते, तो अब तक कभी की सार्वदेशिक भाषा बन गई होती। जब तक आप जैसे विद्वान् लोग अंग्रेजी के भक्त बने रहेंगे, कभी एक सार्वदेशिक भाषा का जन्म न होगा। मगर यह काम कष्टसाध्य है, इसे कौन करे? यहां तो लोगों को अंग्रेजी जैसी समुन्नत भाषा मिल गई, सब उसी के हाथों बिक गए। मेरी समझ में नहीं आता कि अंग्रेजी भाषा बोलने और लिखने में लोग क्यों अपना गौरव समझते हैं। मैंने भी अंग्रेजी पढ़ी है। दो साल विलायत रह आया हूं और आपके कितने ही अंग्रेजी के धुरंधर पंडितों से अच्छी अंग्रेजी लिख और बोल सकता हूं, पर मुझे उससे ऐसी घृणा होती है, जैसे किसी अंग्रेज के उतारे हुए कपड़े पहनने से।

पद्मसिंह ने इन वादों में कोई भाग न लिया। ज्यों ही अवसर मिला, उन्होंने विट्ठलदास को बुलाया और उन्हें एकांत में ले जाकर शान्ता का पत्र दिखाया।

विट्ठलदास ने कहा– अब आप क्या करना चाहते है?

पद्मसिंह– मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। जब से यह पत्र मिला है, ऐसा मालूम होता है, मानो नदी में बहा जाता हूं।

विट्ठलदास– कुछ-न-कुछ करना तो पड़ेगा।

पद्मसिंह– क्या करूं।

विट्ठलदास– शांता को बुला लाइए।

पद्मसिंह– सारे घर से नाता टूट जाएगा।

विट्ठलदास– टूट जाए। कर्त्तव्य के सामने किसी का क्या भय?

पद्मसिंह– यह तो आप ठीक कहते हैं, पर मुझसे इतनी सामर्थ्य नहीं। भैया को मैं अप्रसन्न करने का साहस नहीं कर सकता।

विट्ठलदास– अपने यहां न रखिए, विधवाश्रम में रख दीजिए, यह तो कठिन नहीं।

पद्मसिंह– हां, यह आपने अच्छा उपाय बताया। मुझे इतना भी न सूझा था। कठिनाई में मेरी बुद्धि जैसे चरने चली जाती है।

विट्ठलदास– लेकिन जाना आपको पड़ेगा।

पद्मसिंह– यह क्यों, आपके जाने से काम न चलेगा?

विट्ठलदास– भला, उमानाथ उसे मेरे साथ क्यों भेजने लगे?

पद्मसिंह– इसमें उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है?

विट्ठलदास– आप तो कभी-कभी बच्चों-सी बातें करने लगते हैं। शान्ता उनकी बेटी न सही, पर इस समय वह उसके पिता हैं। वह उसे एक अपरिचित मनुष्य के साथ क्यों आने देंगे?

पद्मसिंह– भाई साहब, आप नाराज न हों, मैं वास्तव में कुछ बौखला गया हूं। लेकिन मेरे चलने में तो बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाएगा। भैया सुनेंगें तो वह मुझे मार ही डालेंगे। जनवासे में उन्होंने जो धक्का लगाया था, वह अभी तक मुझे याद है।

विट्ठलदास– अच्छा, आप न चलिए, मैं ही चला जाऊंगा। लेकिन उमानाथ के नाम एक पत्र देने में तो आपको कोई बाधा नहीं?

पद्मसिंह– आप कहेंगे कि यह निरा मिट्टी का लौंदा है, पर मुझमें उतना साहस भी नहीं है। ऐसी युक्ति बताइए कि कोई अवसर पड़े, तो मैं साफ निकल जाऊं। भाई साहब को मुझ पर दोषारोपण का मौका न मिले।

विट्ठलदास ने झुंझलाकर उत्तर दिया– मुझे ऐसी युक्ति नहीं सूझती। भलेमानुस आप भी अपने को मनुष्य कहेंगे। वहां तो वह धुआंधार व्याख्यान देते हैं, ऐसे उच्च भावों से भरा हुआ, मानों मुक्तात्मा हैं और कहां यह भीरुता।

पद्मसिंह ने लज्जित होकर कहा– इस समय जो चाहे कह लीजिए, पर इस काम का सारा भार आपके ऊपर रहेगा।

विट्ठलदास– अच्छा, एक तार तो दे दीजिएगा, या इतना भी न होगा?

पद्मसिंह– (उछलकर) हां, मैं तार दे दूंगा। मैं तो जानता था कि आप राह निकालेंगे। अब अगर कोई बात आ पड़ी, तो मैं कह दूंगा कि मैंने तार नहीं दिया, किसी ने मेरे नाम से दे दिया होगा– मगर एक ही क्षण में उनका विचार पलट गया। अपनी आत्मभीरुता पर लज्जा आई। मन में सोचा, भाई साहब ऐसे मूर्ख नहीं है कि इस धर्मकार्य के लिए मुझसे अप्रसन्न हों और यदि हो भी जाएं, तो मुझे इसकी चिंता न करनी चाहिए।

विट्ठलदास– तो आज ही तार दे दीजिए।

पद्मसिंह– लेकिन यह सरासर जालसाजी होगी।

विट्ठलदास– हां, होगी तो, आप ही समझिए।

पद्मसिंह– मैं चलूं तो कैसा हो?

विट्ठलदास– बहुत ही उत्तम, सारा काम ही बन जाए।

पद्मसिंह– अच्छी बात है, मैं और आप दोनों चलें।

विट्ठलदास– तो कब?

पद्मसिंह– बस, आज तार देता हूं कि हमलोग शान्ता को विदा कराने आ रहे हैं, परसों संध्या की गाड़ी से चले चलें।

विट्ठलदास– निश्चय हो गया?

पद्मसिंह– हां, निश्चय हो गया। आप मेरा कान पकड़कर ले जाइएगा।

विट्ठलदास ने अपने सरल-हृदय मित्र की ओर प्रशंसा की दृष्टि से देखा और दोनों मनुष्य जलतरंग सुनने जा बैठे, जिसकी मनोहर ध्वनि आकाश में गूंज रही थी।

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